समाज क्या है |समाज का अर्थ, परिभाषा |Samaj Kya Hai | What is Society

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प्रिय दोस्तों, हम जिस भी परिवेश में रहते हैं उसे समाज कहते हैं| क्या आप जानते हैं समाज का अर्थ क्या है?

आइये जानते हैं कि समाज का असल अर्थ क्या हैं और कितने प्रकार से इसे परिभाषित किया गया है|

समाज क्या है

समाज शब्द का प्रयोग साधारण बोलचाल की भाषा में व्यक्तियों के समूह के लिए किया जाता है। हमारे जीवन में समाज शब्द का प्रयोग बहुत बार किया जाता है। जब हम एक से अधिक व्यक्तियों के समूह के बारे में बात करते हैं तो उसके लिए हम समाज शब्द का प्रयोग करते हैं। उदाहरण के लिए ईसाई समाज, आर्य समाज, प्रार्थना समाज, ब्रह्म समाज आदि।

इस प्रकार हम साधारण बोलचाल की भाषा में समाज शब्द का प्रयोग कुछ व्यक्तियों के समूह के लिए लगा देते हैं। जब हम व्यक्तियों के समूह को समाज मान लेते हैं तो समाजशास्त्र की दृष्टि से यह गलत है। समाजशास्त्र की दृष्टि से यह समाज नहीं कहा जा सकता।

समाज का अर्थ

समाजशास्त्र समाज का विज्ञान है। जब समाजशास्त्र में समाज शब्द का प्रयोग होता है तो उसका अर्थ व्यक्तियों के समूह से ना होकर उनके बीच पाए जाने वाले संबंधों की व्यवस्था से है। इस प्रकार सामाज एक व्यवस्था है और इस व्यवस्था का निर्माण अनेक सामाजिक संबंधों के कारण होता है।

समाज की परिभाषा

मैकाइवर और पेज — समाज रीतियों, कार्य प्रणालियों, अधिकारों और पारस्परिक सहायताओ, अनेक समूहों और विभाजनो, मानव व्यवहार के नियंत्रण और स्वतंत्रताओं की व्याख्या है। इस व्यवस्था को हम समाज कहते हैं। यह सामाजिक संबंधों का जाल है और यह सदैव परिवर्तित होता रहता है।

गिंसबर्ग — समाज ऐसे व्यक्तियों को संग्रह है जो निश्चित संबंधों व्यवहार के तरीकों द्वारा सगठित है साथ ही उन व्यक्तियों से भिन्न है जो इस प्रकार के संबंधों द्वारा बने हुए नहीं हैं या जिनके व्यवहार उन से भिन्न है।

1.  समाज व्यक्तियों का संग्रह है अर्थात समाज के लिए एक से अधिक व्यक्ति होने चाहिए।

2.  इन व्यक्तियों के समान हित और उद्देश्य होते हैं। समाज में समानता और असमानता दोनों हैं, किंतु समानता मुख्य है।

3.  इन व्यक्तियों के संबंध प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार के होते हैं।

4.  यह संबंध परिवर्तनशील होते हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि समाज में संबंध बनते हैं और बिगड़ती रहते हैं।

5. संबंधों की इसी व्यवस्था को समाज कहते हैं।

रयूटर — समाज एक अमूर्त शब्द है। जो एक समूह के दो या अधिक सदस्यों के बीच स्थित पारस्परिक संबंधों की जटिलता का बोध कराता है।

बोगार्ड्स — समाज मनुष्यों का एक ऐसा समूह है जिसमें सार्वभौमिक रूप से मानवीय रूचि यों की समानता पाई जाए।

समाज की विशेषताएं

1. समाज अमूर्त है — समाज व्यक्तियों का संग्रह नहीं है, यह तो इन व्यक्तियों के बीच संबंधों की एक व्यवस्था है। संबंधों की स्थापना जागरूकता के द्वारा होती है। जागरूकता का संबंध मस्तिष्क की चेतना से है। मस्तिष्क की चेतना का कोई आकार प्रकार नहीं होता, इसे देखा और छुआ नहीं जा सकता। जिसे देखा और छुआ नहीं जा सकता, वह मूर्त नहीं है। इसलिए समाज अमूर्त है।

2. समाज व्यक्तियों का समूह नहीं है — समाज सामाजिक संबंधों की व्यवस्था है। समाज भौतिक प्राणियों का समूह नहीं है। यह तो इन भौतिक प्राणियों के बीच जो संबंध पाए जाते हैं, उनकी एक व्यवस्था है। इसलिए समाज व्यक्तियों का समूह नहीं है।

3. समाज मनुष्य तक ही सीमित नहीं है — समाज की परिभाषा से स्पष्ट है कि समाज केवल मानव प्राणियों में ही नहीं पाया जाता है, बल्कि समाज पशुओं में भी पाया जाता है। चीटियों और मधुमक्खियों में भी सामाजिक संगठन पाए जाते हैं। जीवन का स्तर जितना ही निम्न होता जाता है जरूरता की मात्रा भी उतनी ही कम होती जाती है। जागरूकता सामाजिक संबंधों का आधार है। जागरूकता सिर्फ मनुष्य में ही पाई जाती है इसलिए समाजशास्त्रीय अर्थों में समाज का अर्थ सिर्फ मनुष्य समाज से ही है। पशुओं में जागरूकता पाई भी जाती है तो वह निम्न मात्रा में रहती है।

4.  समाज में समानता और असमानता — समाज में समानता और असमानता दोनों पाई जाती हैं। यह दोनों तत्व समाज के लिए आवश्यक है —

समानता – समानता समाज का भौतिक तत्व है। समाज में शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार की ही समानता आवश्यक है। मनुष्य की शारीरिक बनावट समान है, अतः उनकी आवश्यकताएं भी समान है। अपनी आवश्यकताओं की समानता के लिए वह एक दूसरे से मिलते जुलते हैं और सहयोग स्थापित करते।

असमानता – जिस प्रकार समाज में समानता आवश्यक है उसी प्रकार असमानता भी आवश्यक है। असमानता के अभाव में समाज की कल्पना ही नहीं की जा सकती। यदि सभी व्यक्ति समान हो तो उनके संबंध चीटियों और मधुमक्खियों के समान ही सीमित होते। उनमें पारस्परिक आदान-प्रदान ना हो पाता और सहयोग की भावना का विकास भी ना हो पाता। उदाहरण के लिए यदि समाज में सिर्फ पुरुष ही पुरुष होते तो संतान उत्पन्न ही नहीं होती और मानव अगली पीढ़ी को जन्म ना दे पाता इसलिए समाज में असमानता भी आवश्यक है।

5. समाज में सहयोग और संघर्ष — मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसका सामाजिक जीवन सहयोग पर आधारित है। इस सहयोग के द्वारा ही वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। सहयोग दो प्रकार का होता है — a. प्रत्यक्ष सहयोग और b. अप्रत्यक्ष सहयोग।

a. प्रत्यक्ष सहयोग  प्रत्यक्ष सहयोग उसे कहते हैं जो आमने-सामने के संबंधों द्वारा किया जाता है जैसे परिवार के सदस्यों का सहयोग पड़ोसियों का सहयोग यह सहयोग एक निश्चित उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किया जाता है। जैसे पति पत्नी के प्रत्यक्ष सहयोग द्वारा ही प्रजाति की निरंतरता कायम रहती है। इसी प्रकार मैच के खिलाड़ियों का उद्देश्य मैच जीतना होता है और इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए सभी खिलाड़ी एक दूसरे का सहयोग करते हैं।

b. अप्रत्यक्ष सहयोग  अप्रत्यक्ष सहयोग मैं उद्देश्य समान होता है किंतु इसकी प्राप्ति असमान कार्य द्वारा की जाती है जैसे श्रम विभाजन इसमें विनने विनने व्यक्ति विभिन्न कार्यों का संपादन करते हैं किंतु इससे समान वस्तुओं का उत्पादन होता है सरल समाज में प्रत्यक्ष सहयोग पाया जाता है जबकि जटिल समाज में अप्रत्यक्ष सहयोग पाया जाता है क्योंकि सामाजिक संबंध अत्यधिक विस्तृत होते हैं।

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